शुक्रवार

वेद सहिता ज्ञान प्रकाश


जीवन जीने की कला साधना, धर्म, समाज. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति स्वास्थ्य-सुख.               *🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे*
*हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे🙏*
*📚श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप*
*📒अध्याय १७ (श्रद्धा के विभाग)*
*🧾श्लोक संख्या ।।१६।।*

*मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥*

*मनः-प्रसादः -* मन की तुष्टि; *सौम्यत्वम् -* अन्यों के प्रति कपट भाव से रहित; *मौनम् -* गम्भीरता; *आत्म -* अपना; *विनिग्रहः -* नियन्त्रण, संयम; *भाव -* स्वभाव का;संशुद्धिः - शुद्धिकरण; *इति -* इस प्रकार; *एतत् -* यह; *तपः -* तपस्या; *मानसम् -* मन की; *उच्यते -* कही जाती है |

*तथा संतोष, सरलता, गम्भीरता, आत्म-संयम एवं जीवन की शुद्धि - ये मन की तपस्याएँ हैं |*

*तात्पर्य :-* मन को संयमित बनाने का अर्थ है, उसे इन्द्रियतृप्ति से विलग करना | उसे इस तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जिससे वह सदैव परोपकार के विषय में सोचे | मन के लिए सर्वोत्तम प्रशिक्षण विचारों की श्रेष्ठता है | मनुष्य को कृष्णभावनामृत से विचलित नहीं होना चाहिए और इन्द्रियभोग से सदैव बचना चाहिए | अपने स्वभाव को शुद्ध बनाना कृष्णभावनाभावित होना है | इन्द्रियभोग के विचारों से मन को अलग रख करके ही मन की तुष्टि प्राप्त की जा सकती है | हम इन्द्रियभोग के बारे में जितना सोचते हैं, उतना ही मन अतृप्त होता जाता है | इस वर्तमान युग में हम मन को व्यर्थ ही अनेक प्रकार के इन्द्रियतृप्ति के साधनों में लगाये रखते हैं, जिससे मन संतुष्ट नहीं हो पाता | अतएव सर्वश्रेष्ठ विधि यही है कि मन को वैदिक साहित्य की ओर मोड़ा जाय, क्योंकि यह संतोष प्रदान करने वाली कहानियों से भरा है - यथा पुराण तथा महाभारत | कोई भी इस ज्ञान का लाभ उठा कर शुद्ध हो सकता है | मन को छल-कपट से मुक्त होना चाहिए और मनुष्य को सबके कल्याण (हित) के विषय में सोचना चाहिए | मौन (गम्भीरता) का अर्थ है कि मनुष्य निरन्तर आत्मसाक्षात्कार के विषय में सोचता रहे | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति पूर्ण मौन इस दृष्टि से धारण किये रहता है | मन-निग्रह का अर्थ है - मन को इन्द्रियभोग से पृथक् करना | मनुष्य को अपने व्यवहार में निष्कपट होना चाहिए और इस तरह उसे अपने जीवन (भाव) को शुद्ध बनाना चाहिए | ये सब गुण मन की तपस्या के अन्तर्गत आते हैं |.                                    *🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे*
*हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे🙏*
*📚श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप*
*📒अध्याय १७ (श्रद्धा के विभाग)*
*🧾श्लोक संख्या ।।१५।।*

*अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥*

*अनुद्वेग-करम् -* क्षुब्ध न करने वाले; *वाक्यम् -* शब्द; *सत्यम् -* सच्चे; *प्रिय -* प्रिय; *हितम् -* लाभप्रद; *च -* भी; *यत् -* जो; *स्वाध्याय -* वैदिक अध्यययन का; *अभ्यसनम् -* अभ्यास; *च -* भी; *एव -* निश्चय ही; *वाक्-मयम् -* वाणी की; *तपः -* तपस्या; *उच्यते -* कही जाती है |

*सच्चे, भाने वाले,हितकर तथा अन्यों को क्षुब्ध न करने वाले वाक्य बोलना और वैदिक साहित्य का नियमित पारायण करना - यही वाणी की तपस्या है ।*

*तात्पर्य :-* मनुष्य को ऐसा नहीं बोलना चाहिए कि दूसरों के मन क्षुब्ध हो जाएँ । निस्सन्देह जब शिक्षक बोले तो वह अपने विद्यार्थियों को उपदेश देने के लिए सत्य बोल सकता है, लेकिन उसी शिक्षक को चाहिए कि यदि वह उनसे बोले जो उसके विद्यार्थी नहीं है, तो उसके मन को क्षुब्ध करने वाला सत्य न बोले । यही वाणी की तपस्या है । इसके अतिरिक्त प्रलाप (व्यर्थ की वार्ता) नहीं करना चाहिए । आध्यात्मिक क्षेत्रों में बोलने की विधि यह है कि जो भी कहा जाय वह शास्त्र-सम्मत हो । उसे तुरन्त ही अपने कथन की पुष्टि के लिए शास्त्रों का प्रमाण देना चाहिए । इसके साथ-साथ वह बात सुनने में अति प्रिय लगनी चाहिए । ऐसी विवेचना से मनुष्य की सर्वोच्च लाभ और मानव समाज का उत्थान हो सकता है । वैदिक साहित्य का विपुल भण्डार है और इसका अध्ययन किया जाना चाहिए । यही वाणी की तपस्या कही जाती है ।                                                       *🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे*
*हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे🙏*
*📚श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप*
*📒अध्याय १७ (श्रद्धा के विभाग)*
*🧾श्लोक संख्या ।।१४।।*

*देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥*

*देव -* परमेश्र्वर; *द्विज -* ब्राह्मण; *गुरु -* गुरु; *प्राज्ञ -* तथा पूज्य व्यक्तियों की; *पूजनम् -* पूजा; *शौचम् -* पवित्रता; *आर्जवम् -* सरलता; *ब्रह्मचर्यम् -* ब्रह्मचर्य; *अहिंसा -* अहिंसा; *च -* भी; *शारीरम् -* शरीर सम्बन्धी; *तपः -* तपस्या; *उच्यते -* कहा जाता है |

*परमेश्र्वर, ब्राह्मणों, गुरु, माता-पिता जैसे गुरुजनों की पूजा करना तथा पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा ही शारीरिक तपस्या है |*

*तात्पर्य :-* यहाँ पर भगवान् तपस्या के भेद बताते हैं | सर्वप्रथम वे शारीरिक तपस्या का वर्णन करते हैं | मनुष्य को चाहिए कि वह ईश्र्वर या देवों, योग्य ब्राह्मणों, गुरु तथा माता-पिता जैसे गुरुजनों या वैदिक ज्ञान में पारंगत व्यक्ति को प्रणाम करे या प्रणाम करना सीखे | इन सबका समुचित आदर करना चाहिए | उसे चाहिए कि आंतरिक तथा बाह्य रूप में अपने को शुद्ध करने का अभ्यास करे और आचरण में सरल बनना सीखे | वह कोई ऐसा कार्य न करे, जो शास्त्र-सम्मत न हो | वह वैवाहिक जीवन के अतिरिक्त मैथुन में रत न हो, क्योंकि शास्त्रों में केवल विवाह में ही मैथुन की अनुमति है, अन्यथा नहीं | यह ब्रह्मचर्य कहलाता है | ये सब शारीरिक तपस्याएँ हैं |.                                           *🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे*
*हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे🙏*
*📚श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप*
*📒अध्याय १७ (श्रद्धा के विभाग)*
*🧾श्लोक संख्या ।।१३।।*

*विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥*

*विधि-हीनम् -* शास्त्रीय निर्देश के बिना; *असृष्ट-अन्नम् -* प्रसाद वितरण किये बिना; *मन्त्र-हीनम् -* वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना; *अदक्षिणम् -* पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना; *मन्त्र-हीनम् -* वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना; *उदक्षिणम् -* पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना; *श्रद्धा -* श्रद्धा; *विरहितम् -* विहीन; *यज्ञम् -* यज्ञ को; *तामसम् -* तामसी; *परिचक्षते -* माना जाता है |

*जो यज्ञ शास्त्र के निर्देशों की अवहेलना करके, प्रसाद वितरण किये बिना, वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना तथा श्रद्धा के बिना सम्पन्न किया जाता है, वह तामसी माना जाता है |*

*तात्पर्य:-* तमोगुण में श्रद्धा वास्तव में अश्रद्धा है | कभी-कभी लोग किसी देवता की पूजा धन अर्जित करने के लिए करते हैं और फिर वे इस धन को शास्त्र के निर्देशों की अवहेलना करके मनोरंजन में व्यय करते हैं | ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों को सात्त्विक नहीं माना जाता | ये तामसी होते हैं | इनसे तामसी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है और मानव समाज को कोई लाभ नहीं पहुँचता |.            
    *🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे*
*हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे🙏*
*📚श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप*
*📒अध्याय १७ (श्रद्धा के विभाग)*
*🧾श्लोक संख्या ।।१२।।*

*अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् । इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥*

*अभिसन्धाय -* इच्छा कर के; *तु -* लेकिन; *फलम् -* फल को; *दम्भ -* घमंड; *अर्थम् -* के लिए; *अपि -* भी; *च -* तथा; *एव -* निश्चय ही; *यत् -* जो; *इज्यते -* किया जाता है; *भरत-श्रेष्ठ -* हे भरतवंशियों में प्रमुख; *तम् -* उस; *यज्ञम् -* यज्ञ को; *विद्धि -* जानो; *राजसम् -* रजोगुणी |

*लेकिन हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए गर्ववश किया जाता है, उसे तुम राजसी जानो |*

*तात्पर्य:-* कभी-कभी स्वर्गलोक पहुँचने या किसी भौतिक लाभ के लिए यज्ञ तथा अनुष्ठान किये जाते हैं | ऐसे यज्ञ या अनुष्ठान राजसी माने जाते हैं ll

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मनुष्य का सबसे बड़ा धन उसका स्वस्थ शरीर हैं इससे बड़ा जगत में कोई धन नहीं है यद्यपि बहुत लोग धन के पीछे अपना यथार्थ और भविष्य सब कुछ भुल जाते हैं। उनको बस सब कुछ धन ही एक मात्र लक्ष्य होता है। अन्तहीन समय आने पर उन्हें जब तक ज्ञात होता है तब तक देर हो चुकी होती है। क्या मैंने थोड़ा सा समय अपने लिए जिया काश समय अपने लिए कुछ निकाल पाता तो आज इस अवस्था में मै नहीं होता जो परिवार का मात्र एक प्रमुख सहारा है वह आज दुसरे की आश लगाये बैठा है। कहने का तात्पर्य यह है कि वह समय हम पर निर्भर करता है थोडा सा ध्यान चिन्तन करने के लिए अपने लिए उपयुक्त समय निकाल कर इस शारीरिक मापदंड को ठीक किया जाय। और शरीर को नुकसान से बचाया जाए और स्वास्थ्य रखा जाय और जीवन जीने की कला को समझा जाय।   vinaysinghsubansi.blogspot.com पर इसी पर कुछ हेल्थ टिप्स दिए गए हैं जो शायद आपके लिए वरदान साबित हो - धन्यवाद